वो निगाहों से जादू चलाते रहे
हम हवा में परिंदे उड़ाते रहे
कुछ न समझे की क्या बात थी दोस्तो?
घर मेरे रोज़ वो आते-जाते रहे
हमसे बिछड़े तो हम जैसे मर ही गए
हिज्र की मर वो भी तो खाते रहे
कोई बिछड़े किसी से ख़ुदा ना करे
उसकी रहमत सभी को मिलाते रहे
इश्क का दीप हम थे जलाने चले
कुफ़्र मिटने तलक हम जलाते रहे
प्यार में हद से आगे वो बढ़ते रहे
हम ही थे कि बहुत हिचकिचाते रहे
प्यार मुझसे भी ज़्यादा तो करते थे वो
ना समझ थे जो उनको सताते रहे
"लुत्फी"भटके नहीं इक तुझे छोड़कर
हुस्न अक्सर इन्हें आज़माते रहे.......................
Monday, January 3, 2011
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2 comments:
shaahjhaan bhayi bhut khub achchaa likha he mubark ho . akhtar khan akela kota rajsthan
thanks
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