Wednesday, January 26, 2011

हाल-ए-दिल जो कहे वो क़लम धुंडते हैं.......................

तुझ सा हसीं इक सनम धुंडते  हैं
तुम्हारा ही नक्श-ए-क़दम धुंडते हैं

बे ज़ुबां हो गया हुस्न को देख कर 
हाल-ए-दिल जो कहे वो क़लम धुंडते हैं

तेरी ज़ुल्फ़ें हैं लटकी घटा की तरह
प्यासे भी अब घटाओं को काम धुंडते हैं

दूर दुनिया से हम दोनों रहने लगे
बाग़-ए-मस्ती को दुनिया के ग़म धुंडते हैं

प्यार करते रहे,दर्द बढ़ता रहा
"लुत्फ़ी"को अब तो उनके सितम धुंडते हैं...........

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