Friday, December 24, 2010

राज़ को राज़ तक ही रहने दो
ख़ास हूँ ख़ास तक ही रहने दो


अपने दिल से जुदा न करना मुझे
पास हूँ पास तक ही रहने दो


ज़िन्दा सांसें हैं तेरी सांसों से
साँस को साँस तक ही रहने दो


बात बढ़ने से रिश्ते टूटेंगे
बात को बात तक ही रहने दो


टूटे दिल में तराने छेड़ो नहीं
सुर को अब साज़ तक ही रहने दो


हद से गर बढ़ गईं तो क्या होगा? 
नाज़ को नाज़ तक ही रहने दो


तय करूँ क्यों मैं राह-ए=मंज़िल को
आस हूँ आस तक ही रहने दो


कल को सोचेंगे क्या करें "लुत्फी"
आज को आज तक ही रहने दो ..........

4 comments:

Anonymous said...

एक खूबसूरत गज़ल!

मुहब्बत चीज़ है फ़कत महसूस करने की दोस्त
नादान दिल की आह को आह तक ही रहने दो!

उममीद है कि ये सिलसिला यूं ही चलता रहेगा…
मेरी दुवायें आपके साथ हैं!

अभिषेक आर्जव said...

bahut achhaa lagaa padhkar ....jo jo hai vo vahi rahe to hi achhaa hai. bahut khobsoorat andaz me kahii hai baat aapne.

Anonymous said...

"LUTFI JEE", THE CADENCE AND THE THEME IS OVER THE NINTH CLOUD! HOPING FOR THEIR FULFILLMENT.BUT YOU HAVE FAILED TO SHOW THAT CHARM WHICH IS THE HALLMARK OF YOUR POETRY..... THE FLOW IS NOT WHAT HAS BEEN SHOWN IN THE PRIOR GAZAL. BUT, ANYWAY, i LIKED IT AND PRAY THAT IT PROVES ITS WORTH IN YOUR LIFE. MERRY CHRISTMAS!

ARMAN AHMAD said...

लुत्फ़ी जी बात खास है खास तक राहने दो
सुबह को सुबह शाम को शाम तक रहने दो

वैसे अब हम भी आगये हैं, वक्त मिले तो मेरे ब्लाग पर भी अपनी नज़रे ईनायत......

बहुत ही खूब्स्सूरत गज़ल कही है...........कहां छुपा रक्खा था!

मेरी दुआयें आपके साथ हैं!!

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