Wednesday, October 19, 2011

माँ की ताज़ीम को लफ़्ज़ों में कह नहीं सकता..........

मैं प्यार करता हूँ उनसे ये कह नहीं सकता
कह न पाऊं अगर तो ज़िंदा रह नहीं सकता

आ भी जाओ कि मेरी जान निकली जाती है
हिज्र कि  तंग निगाहों  को  सह नहीं सकता

मेरे माँ-बाप ने कुछ ऐसी नसीहत दी है
कुफ्र की तेज़ हवाओं में बह नहीं सकता

ग़म की शहनाइयाँ बजती हैं यहाँ शाम-ओ-सहर
मैं वो खंडर हूँ  जो आबाद रह नहीं सकता

शक के दीवार की बुनियाद को न पड़ने दो
ये वो दीवार है जो ढाहे ढह नहीं  सकता

रूबरू हो गया, तो हसरतें पूरी कर ले !
बारहा मौक़ा-ए-दीदार लह नहीं सकता

या ख़ुदा आला हुनर कोई अता कर दे मुझे
माँ की ताज़ीम को लफ़्ज़ों में कह नहीं सकता

अपनी औकात पे उतरा तो देखना "लुत्फ़ी"
कोई गद्दार  इस वतन  में रह नहीं सकता 

9 comments:

रविकर said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति ||
मेरी बधाई स्वीकार करें ||

सुरेन्द्र "मुल्हिद" said...

kya baat....kya baat.....kya baat....!!!!

kanu..... said...

sunadar.sahi hai maa ki taleem ko shabdon me kah nahi sakta

नीरज गोस्वामी said...

Subhan Allah...behtariin Shayri...Daad kabool karen

Neeraj

ashish said...

so nice.........awesome.........:)

ashish said...

so nice.........awesome.........:)

Monika Jain said...

bahut khub...welcome to my blog :)

Amrita Tanmay said...

बेहद खूबसूरत...

***Punam*** said...

बहुत खूबसूरत.....

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